• नूरजहाँ की आवाज़ अर्से तक ज़िंदा रहेगी

    अपने फ़िल्मी करियर में नूरजहाँ ने तक़रीबन दस हज़ार गाने गाए। हिन्दी फ़िल्मों के अलावा उन्होंने पंजाबी, उर्दू, अरबी, बंगाली, पश्तो और सिंधी फ़िल्मों में भी अपनी आवाज़ से सामाईन को मदहोश किया।

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    — ज़ाहिद ख़ान
    अपने फ़िल्मी करियर में नूरजहाँ ने तक़रीबन दस हज़ार गाने गाए। हिन्दी फ़िल्मों के अलावा उन्होंने पंजाबी, उर्दू, अरबी, बंगाली, पश्तो और सिंधी फ़िल्मों में भी अपनी आवाज़ से सामाईन को मदहोश किया। 21 सितम्बर, 1926 को अविभाजित भारत के पंजाब के छोटे से शहर कसूर में जन्मी नूरजहाँ को बचपन से ही गीत-संगीत का शौक था। नूरजहाँ की अम्मी और वालिद ने जब मूसिक़ी के जानिब उनकी दीवानगी देखी, तो संगीत की तालीम का बंदोबस्त कर दिया। इब्तिदाई तालीम कज्जन बाई, तो क्लासिकल म्यूजिक की तालीम उन्होंने उस्ताद गु़लाम मोहम्मद तथा उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खां से ली।

    नूरजहाँँ, भारतीय सिनेमा की वह अदाकारा और सिंगर हैं, जिन्हें अपने ज़माने में मलिका-ए-तरन्नुम और क्वीन ऑफ मेलोडी के नाम से ख़िताब किया जाता था। नूरजहाँ जितनी भारत में मक़बूल हैं, उतनी ही पाकिस्तान में। बंटवारे के बाद, वे पाकिस्तान चली गईं। और वहां भी वो अपनी आवाज़ का जादू चारों और बिखेरती रहीं। नूरजहाँ ने मूक फ़िल्मों से अपने फ़िल्मी करियर की शुरुआत की और कुछ ही बरसों में वे फ़िल्मी पर्दे पर छा गईं। अदाकारी के साथ उन्होंने गायकी भी की। 'खानदान', 'नौकर', 'जुगनू', 'दुहाई', 'जीनत' और 'अनमोल घड़ी' में गाये उनके गीत आज भी गुनगुनाये जाते हैं। 'आजा मेरी बर्बाद मोहब्बत के सहारे...', 'जवां है मोहब्बत...' ने तो उस वक़्त पूरे मुल्क में धूम मचा दी थी। अरसा गुज़र गया, मगर ये गीत आज भी उसी तरह से मशहूर हैं।


    अपने फ़िल्मी करियर में नूरजहाँ ने तक़रीबन दस हज़ार गाने गाए। हिन्दी फ़िल्मों के अलावा उन्होंने पंजाबी, उर्दू, अरबी, बंगाली, पश्तो और सिंधी फ़िल्मों में भी अपनी आवाज़ से सामाईन को मदहोश किया। 21 सितम्बर, 1926 को अविभाजित भारत के पंजाब के छोटे से शहर कसूर में जन्मी नूरजहाँ को बचपन से ही गीत-संगीत का शौक था। नूरजहाँ की अम्मी और वालिद ने जब मूसिक़ी के जानिब उनकी दीवानगी देखी, तो संगीत की तालीम का बंदोबस्त कर दिया। इब्तिदाई तालीम कज्जन बाई, तो क्लासिकल म्यूजिक की तालीम उन्होंने उस्ताद गु़लाम मोहम्मद तथा उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली खां से ली। साल 1939 में आई फ़िल्म 'गुल-ए-बकावली' वह फ़िल्म थी, जिसमें उन्होंने सबसे पहले गाना गाया। इस फ़िल्म की कामयाबी के बाद नूरजहाँ फ़िल्म इंडस्ट्री में सुर्खि़यों मे आ गईं। साल 1942 में फ़िल्म 'खानदान' रिलीज हुई।

    इस फ़िल्म में भी उन्होंने अदाकारी के साथ-साथ गाने भी गाये। फ़िल्म के साथ-साथ इसके गाने भी सुपर हिट हुए। फ़िल्म की कामयाबी के बाद नूरजहाँ ने फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा, एक के बाद एक उनकी कई सुपर हिट फ़िल्में आईं। जिसमें उन्होंने अपनी अदाकारी और गायकी के हुनर का लोहा मनवा लिया। साल 1947 में बनी फिल्म 'मिज़ार्-साहिबा' भारत में नूरजहाँ की आख़िरी फ़िल्म थी। मुल्क की तक़्सीम के बाद, लाखों लोगों के साथ उन्होंने भी पाकिस्तान में जाकर बसने का फ़ैसला किया। उस वक़्त वे शोहरत की बुलंदियों पर थीं। ऐसे में अपना सब कुछ छोड़कर जाना, वाक़ई एक बड़ा फै़सला था। लेकिन कुछ ही अरसे में पाकिस्तान में भी उन्होंने वही सब हासिल कर लिया। अदाकारी और गायकी दोनों ही में वे बरसों तक उरूज पर रहीं। पाकिस्तानी फ़िल्मों में नूरजहां के योगदान को देखते हुए, न सिफ़र् उन्हें पाकिस्तान के पहले राष्ट्रपति सम्मान से नवाज़ा गया, बल्कि वहां के सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'निशान-ए-इम्तियाज़' से भी सम्मानित किया गया।


    नूरजहाँ की गायकी और सुरीली आवाज़ पर मशहूर अफ़साना निगार सआदत हसन मंटो भी फ़िदा थे , इस हद तक कि उन्होंने नूरजहाँ की दिल-आवेज़ शख़्सियत पर पर एक शानदार ख़ाका भी लिखा था। वो लिखते हैं, ''सहगल के बाद, मैं नूरजहाँ के गले से मुतास्सिर हुआ। इतनी साफ-शफ़्फ़ाफ़ आवाज़, मुरकियां (स्वर का उतार-चढ़ाव) इतनी वाज़ेह, खरज (उच्चारण) इतनी हमवार, पंचम इतना नुकीला। मैंने सोचा, अगर यह लड़की चाहे, तो घंटों एक सुर पर खड़ी रह सकती है, उसी तरह जिस तरह बाज़ीगर तने हुए रस्से पर बगै़र किसी लग़ज़िश (माधुर्यपूर्ण) के खड़े रहते हैं।'' मंटो यहीं नहीं रुक जाते, बल्कि अपने इस मज़ामीन में वे आगे लिखते हैं, ''नूरजहाँ के मुताल्लिक़ बहुत कम आदमी जानते हैं कि वह राग विद्या उतनी ही जानती है, जितनी कि कोई उस्ताद। वह ठुमरी गाती है, ख़याल गाती है, ध्रुपद गाती है और ऐसी गाती है कि गाने का हक़ अदा करती है। मौसीक़ी की तालीम तो उसने यक़ीनन हासिल की थी कि वह ऐेसे घराने में पैदा हुई, जहां का माहौल ही ऐसा था-लेकिन एक चीज़ ख़ु़दादाद भी होती है। मौसीक़ी के इल्म से किसी का सीना मामूर (परिपूर्ण) हो, मगर गले में रस न हो तो आप समझ सकते हैं कि ख़ाली-खू़ली इल्म सुनने वालों पर क्या असर कर सकेगा-नूरजहाँ के पास इल्म भी था और वह ख़ु़दादाद चीज़ भी, जिसे गला कहते हैं। यह दोनों चीज़ें मिल जाएं, तो क़यामत का बरपा होना लाज़िमी है।''

    ('नूरजहाँ', किताब-'सआदत हसन मंटो दस्तावेज़, प्रकाशक-राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली, पेज़-115) वाक़ई नूरजहाँ की दिलकश आवाज़, उस दौर में उनके चाहने वालों पर एक कहर सा ढाती थी। लोग उनकी गायकी के दीवाने थे।


    नूरजहाँ को शेर-ओ-अदब का बेहद शौक़ था। ख़ास तौर पर वे मशहूर-ए-ज़माना शायर फै़ज़ अहमद फै़ज की शायरी की बड़ी दीवानी थीं। फै़ज़ को समझकर और महसूस करके गाने वालों में नूरजहाँ और इक़बाल बानो सर-ए-फेहरिस्त हैं। नूरजहाँ और फै़ज़ अहमद फै़ज़ के किस तरह के मरासिम थे और वे फै़ज़ और उनकी शायरी की कितनी इज़्ज़त-ओ-एहतिराम करती थीं, एक छोटे से कि़स्से से जाना जा सकता है। इस कि़स्से को तरक़्क़ीपसंद अदीब और जर्नलिस्ट हमीद अख़्तर ने अपनी किताब 'आशनाईयां क्या क्या' में बड़े शानदार अंदाज़ में बयां किया है। जो इस तरह से है, ''अय्यूबी मार्शल लॉ के दूसरे बरस आला सतह पर फै़सला किया गया कि कायद-ए-आज़म का जश्न-ए-विलादत (पुण्यतिथि) सरकारी तौर पर मनाया जाए। इस ज़िम्न में पंजाब यूनीवर्सिटी हॉल में एक महफ़िल-ए-मूसिक़ी तर्तीब दी गई। जिसका प्रोग्राम रेडियो पाकिस्तान लाहौर से रिले करने का एहतिमाम किया गया था।


    इस शाम यूनीवर्सिटी हॉल में मुल्क के नामवर गुलूकारों (गायकों) को जमा किया गया। मादाम नूरजहाँ भी मौजूद थीं। जब वो स्टेज पर आईं, तो उन्होंने फै़ज़ की नज़्म ''मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग।'' गाना शुरू की। उस वक़्त भी फै़ज़ का कलाम रेडियो से नस्र (प्रसारित) करने की इजाज़त न थी। इसलिए रेडियो वालों ने मार्शल लॉ हुक्काम से जो वहां मौजूद थे, रुजू (संपर्क) किया। एक फ़ौजी अफ़सर ने कोई दूसरी चीज़ गाने के लिए कहा। और बताया कि
    ''फै़ज़ के कलाम पर पाबंदी की वजह से ये नज़्म नहीं गायी जा सकती।''


    मगर नूरजहाँ का इसरार था कि वो यही नज़्म सुनाएगी, वरना घर चली जाएंगी। जब बात बहुत बढ़ी, तो उसने कहा,
    ''अच्छा, तो फिर आप लोग मुझे भी वहीं भेज दीजिए, जहां फै़ज़ हैं।''


    फै़ज़, उस वक़्त सरकार की कै़द में थे। काफ़ी बहस-ओ-मुबाहिसे के बाद, बिल आख़िर मुंतज़मीन (आयोजकों) को मजबूरन मादाम का मुतालबा (मांग) मानना पड़ा। अलबत्ता रेडियो से इस महफ़िल का राब्ता काट दिया गया।


    नूरजहाँ वाहिद गुलूकारा हैं, जो साज़ की मोहताज नहीं थीं। बहुत सी घरेलू और निजी महफ़िलों में वे बिना साज़ के गाती और गुनगुनाती थीं। और सुनने वालों को वैसा ही मज़ा आता था, जो साज़ के साथ सुर की बंदिश से आता है। जबकि ऐसे कई गायक-गायिकाएं मिल जाएंगी, जो बिना साज़ के एक लाइन तक नहीं गा सकते। एक अहम बात और, गायक-गायिका अपनी आवाज़ बेहतर रखने के लिए क्या-क्या जतन नहीं करते, मगर नूरजहाँ इससे बिल्कुल बेपरवाह रहती थीं। अच्छी आवाज़ के लिए जिन चीज़ों के खाने की मनाही या पाबंदी रखना ज़रूरी है, वे उन्हें ख़ू़ब खाती थीं। '23 दिसम्बर, 2000 को मलिका-ए-तरन्नुम नूरजहाँ ने इस दुनिया से अपनी विदाई ली। इस लेख का इख़्तिताम (समापन) मैं अफ़साना निगारी के उस्ताद मंटो की बात से ही करता हूं।


    ''जब तक रिकार्ड ज़िंदा हैं, सहगल मरहूम की आवाज़ कभी मर नहीं सकती-इसी तरह नूरजहाँ की आवाज़ भी अर्से तक ज़िंदा रहेगी और आने वाली नस्लों के कानों में अपना शहद टपकाती रहेगी।''
    महल कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र.

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